निहायत सादगी, बेहद शराफत, गहरी हमदर्दी
अखिलेश तिवारी|
*निहायत सादगी, बेहद शराफत, गहरी हमदर्दी*!
*ये डसते हैं मुझे अक्सर, मैं अक्सर तिलमिलाता हूँ*?...
बदला बदला मंजर है हर हाथ में वक्ती खंजर है अब कोई भी है अपना नहीं धोखेबाज भी रहबर है। तिरस्कार संघ घृणा का खेल शुरु हो गया घर घर है। समय का रथ भी थक सा गया है ठोकर कदम कदम पर है! कौन है अपना! कौन पराया! मृग तृष्णा सा भरम भी है। जिधर देखिये स्वार्थ की दरीया में आती हुयी सुनामी है!मीट्टी मे अब मिलने लगी घर की इज्जत नामी है? देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान कितना बदल गयाइंसान!बदलाव के चलते समभाव की सरजमीं पर दुराव के जहरीले पौध लहलहाने लगे हैं।आज सबसे अधिक दर्द वहीं दे रहे हैं जो अपने सगे है। वास्तविकता के धरातल पर कदम ताल करती जिन्दगी हकीकत के दुरूह पथ पर चलते चलते थक गयी है। परम्परा रीत रिवाज आज सब कुछ बदल गया! रहन सहन खान पीन पहनावा सब दिखावा का शुरु हो गया? इन्सानी फितरत का ज़बाब प्रकृति भी जमकर दे रही है!वह भी सहमी सहमी गलत फहमी पालती जा रही है।आज पंद्रह दिसम्बर हो गया हाड़ हिला देने वाली शीतलहर गायब है! भारी वर्षात के चलते किसान मौसम के बदलाव का दंश झेल रहा है !खेतों में पानी है? आज तक नहीं हो सकी खेती किसानी है? रबी की बुवाई नहीं हो पाई दिसम्बर का महीना फागुन का अहसास करा रहा है।पच्चीस दिसम्बर से बड़ा दिन शुरू हो जायेगा! चौदह जनवरी से मौसम रुखा हो जायेगा! यह सदियों से चली आ रही ब्यवस्था है।जलवायु परिवर्तन का गजब नजारा है।सारी रात टहा टह उजियाला सुबह का मौसम निराला है। जिधर देखिये बदलाव केवल बदलाव लोग बदल रहे हैं! समाज बदल रहा है! नाते रिश्ते बदल रहें हैं! धर्म कर्म बदल रहा है! घर परिवार बदल रहा है! लोगों का ब्यवहार बदल रहा है। हर आदमी जल्दी में हैं! परेशानी में हैं,?किसी को भी फुर्सत नहीं है?भाग दौड़ आपा धापी के चलते आधी उम्र में ही शारीरिक बिमारियों के चपेट में आकर जीवन के खुशनुमा पल को भोगने से बन्चित हो रहे हैं! फिर भी वास्तविकता से नहीं परिचित हो रहे हैं। लोगों के दिल में जहर भर रहा है!वहीं पर्यावरण भी जहरीला हो रहा है। हर घर में सुबह शाम स्वार्थ के वशीभूत गजब का लीला हो रहा है।अपना पराया खेल आम बात हो गयी है। जाना साथ कुछ नहीं है। सब कुछ यही छोड़कर जाना है! फिर भी इन्सान पैसे की हबस में दीवाना है। जिस दिन सज-धज कर मौत की शहजादी आयेगी न सोना साथ जायेगा न चादी जायेगी? सच की सतह पर कुछ पल बैठकर तो देखिये! शम्मशान की चिता में जलती हुयी खूबसूरत शरीर की चटकती हड्डीयो से निकलने वाली आह आवाज को जरा गौर से सुने! महाकाल अबिनाशी के दरबार में जीवन का सच समझ में आ जायेगा?।मगर माया के आगोश में मदहोश मतलबी इन्सान झूठे मान शान स्वाभिमान आन बान के आडम्बर में सुखमय जीवन का ख्वाब लिये अनमोल समय को ब्यर्थ गंवा देता है। जब की उसे पता है उसकी आखरी मंजिल श्मशान है! यह भी शास्वत सत्य है जो बोया वही काटना है! रुढीवादी समाज आज के आधुनिक समाज से बहुत बेहतर था! हर चीज की एक सीमा थी! हर कोई उस सीमा में ही रहकर बशर करता था! आज किसी भी चीज की सीमा नहीं! कोई वन्दिस नहीं !कोई नियम नहीं !किसी को किसी का डर नहीं! है बड़े छोटों का लिहाज नहीं! किसी का कोई सगा नही?कह रहे हैं हम आप जमाना बदल रहा है! हम आधुनिक हो रहे हैं! बिकाश हो रहा है !अज्ञानता का बादल छंट रहा है! समानता का समान अधिकार! समान ब्यवहार! का युग आ गया! धर्म कर्म पाखन्ड नजर आने लगा! यानि बिनाश काले बिपरीत बुद्धी !
जो निर्धारित है उसी पर वक्त आधारित है!जो होना है हो रहा है! समय में कोई बंटवारा नहीं! कोई भेद नहीं? समय के साथ चलना मजबूरी है! फिर भी सबका साथ जरुरी है।सोचिये समझिये अपनी संस्कृति को पहचानिये वर्ना इस बैमनश्यता की आग में सब कुछ स्वाहा हो जायेगा।?विकृत समाज पुरातन ब्यवस्था को विकलांग बना देगा भारतीय परम्परा का विनाश हो जायेगा जिसका परिणाम निश्चित रुप से सभ्य समाज के हित में नहीं होगा?
*ठोकर किसी पत्थर से अगर खाई है मैंने* !
*मंजिल का निशाऀ भी उसी पत्थर से मिला है
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